Wednesday, May 12, 2010

अहंकार नष्ट करता है मान स्तंभ

आगरा। पत्थरों पर उकेरा है प्रेम, शांति, करुणा, अहिंसा का संदेश। झलकता है जैन आचार्यो का त्याग। सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित है आदिनाथभगवान की प्रतिमा।

हरीपर्वतचौराहे पर एमडीजैन इंटर कालेज स्थित दिगम्बर जैन मंदिर इन दिनों जगमगा रहा है। इस मंदिर के सबसे आगे स्तम्भ बना हुआ है। जिसकी वेदी के चारों और जैन पताका फहरा रही हैं। करीब 50फुट ऊंचे, संगमरमर से बनाए गए इस स्तम्भ के चारों ओर जैन ग्रंथों से श्लोक और जिओऔर जीने दो के संदेश लिखे हुए हैं।

स्तम्भ के निर्माण में देश के कई जैन आचार्यों की प्रेरणा रही। सन् 1942में आचार्य सूर्य सागर आगरा आये। उन्होंने इस मंदिर में कुछ दिन तक प्रवास किया। उन्होंने प्रवचन में मान स्तम्भ का महत्व बताया और उसे यहां बनाने की प्रेरणा दी। उनके मुख से निकले एक-एक शब्द ने जैन समाज पर प्रभाव डाला। इसके लिए समाजसेवी मटरूमलबैनाडाआगे आये। उनकी उदारता से प्रतिष्ठाचार्यपं.झम्मनलालतर्कतीर्थके निर्देशन में नींव रख दी गयी। 1943में आचार्य वीर सागर और उनके शिष्यों का आगमन हुआ। उनके निर्देशन में स्तम्भ की प्रतिष्ठा प्रद्युम्न शास्त्री आचार्य ने करायी।

स्तम्भ में सर्वोच्च शिखर पर चारों ओर भगवान ऋषभदेवकी प्रतिमा है, जो मूलचंद लुहाडियाऔर उनके पुत्र हरिश्चंद्र लुहाडियाने स्थापित करायी। नौ मार्च 1991में इसका मस्ताभिषेककिया गया, जिसमें आचार्य विद्यानंद,आचार्य विमल सागर, आचार्य कल्याण सागर, आचार्य कुंद सागर का आशीर्वाद मिला था।

जैन समाज में मान्यता है कि जो भी मंदिर में प्रवेश करता है, वह पहले मान स्तम्भ के आगे नतमस्तक होता है। गुरुओं की वंदना करता है। जिससे उस व्यक्ति के मन में जो अभिमान है, वह शांत हो जाता है। आगरा दिगम्बर जैन परिषद के अध्यक्ष जितेंद्र जैन ने बताया कि यह स्तम्भ विधि विधान से बना हुआ है।

जैन विद्वान भूपेंद्र कुमार बैनाडाने बताया कि शास्त्रों में लिखा है कि गौतम गणधरको अभिमान था कि उनके साथ 500शिष्य चलते हैं। एक दिन वे इस स्तम्भ के आगे आये। यहां आते ही उनका अहंकार समाप्त हो गया। वे भगवान महावीर की शरण में पहुंच कर मुनि बन गये। महावीर जयंती पर जो भी जैन अनुयायी यहां आ रहे हैं, वे सबसे पहले मस्तक झुका कर अपने भाव निर्मल करते हैं।

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